27 दिसम्बर 2009 को रघुनाथ मिश्र काव्य गोष्ठी में काव्य पाठ करते हुए |
मैं परिन्दों की जगह ख़ुद को कहीं पाता हूँ ,
खु़द के कंधे पे सभी बोझ ख़ुद उठाता हूँ
मतलबी यार से यारी का भला क्या मानी
प्यार की ओर सहज ही मैं खिंचा जाता हूँ
पालें गन्तव्य यही सीखता सिखाता हूँ
सौवीं में यूँ ही हाथ और पग हिलाता
हूँ
ये मेरा यार ही है जो जल गया चराग़ों सा
मैं पतंगों की तरह खामखाँ मँडराता हूँ
कर दिया हँसते हुए सारी ज़िन्दगी कुरबाँ
उन शहीदों से
हौसलों की अदा पाता हूँ
हार मानी न कभी अपनी बदगुमानी में
उन हजारों को आत्मबल से मैं हराता
हूँ
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