मंगलवार, 28 अगस्त 2012

रघुनाथ मिश्र

27 दिसम्‍बर 2009 को रघुनाथ मिश्र  काव्‍य गोष्‍ठी में काव्‍य पाठ करते हुए


















मैं परिन्दों की जगह ख़ुद को कहीं पाता हूँ ,
आशियाना भी उसी तर्ज पे बनाता हूँ
खु़द के कंधे पे सभी बोझ ख़ुद उठाता हूँ 
मतलबी यार से यारी का भला क्या मानी
प्यार की ओर सहज ही मैं खिंचा जाता हूँ
छीन औरों से मँगाता है तू महँगी थाली 
मूल्य ग़ायब है पतन आदमी का है जारी
पालें गन्तव्य यही सीखता सिखाता हूँ
सौवीं में यूँ ही हाथ और पग हिलाता हूँ
ये मेरा यार ही है जो जल गया चराग़ों सा
मैं पतंगों की तरह खामखाँ मँडराता हूँ
कर दिया हँसते हुए सारी ज़िन्दगी कुरबाँ
उन शहीदों से हौसलों की अदा पाता हूँ
हार मानी न कभी अपनी बदगुमानी में
उन हजारों को आत्मबल से मैं हराता हूँ

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